मऊ :
कूड़े में भविष्य तलाश रहे बच्चे,जिम्मेदार अंधे और मौन।।
■ देवेन्द्र कुमार कुशवाहा।
दो टूक : सरकारी योजनाओं और समाजसेवी संस्थाओं के प्रयास के बावजूद बालश्रम प्रथा रुक नहीं पा रही है। अभिभावकों की शह पर ही बच्चे काम करने को मजबूर हैं स्कूल जाने और खेलन कूदने की उम्र मे कूड़े मे अपना भविष्य तलाश रहे है स्कूल चलो अभियान के जिम्मेदार सब कुछ देखते हुए मौन है।
विस्तार:
सरकारी व गैर सरकारी समाजसेवी संस्थाएं गरीबों को सहारा देने व उनके साथ हमदर्दी का ढिंढोरा पीटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़तीं, लेकिन जमीनी हकीकत कोपागंज नगरपंचायत में कूड़े के ढेर में टटोलता बालक बयां कर रहा है। वैसे तो इन हाथों में किताब-पेंसिल होनी चाहिए लेकिन उन हाथों से वह कूड़े के ढेर में प्लास्टिक, लोहे आदि के रूप में जिन्दगी तलाश रहा है।
हकीकत यही है कि यहां दिखता कुछ है और होता कुछ है। समाजसेवी संस्थाएं हकीकत में कितना काम करती है यह शहर में थोड़ा सा ही घूमने पर पता चल जायेगा। 8 से 14 साल तक के बच्चे कूड़ा बीनते, दुकान-चाय के होटल पर काम करते हुए मिल जायेंगे। समाजसेवी संस्थाएं नाम व दिखावे के लिए काम करती हैं। इनका मकसद लोगों की वाह वाही लूटना व अपने को गरीबों का हमदर्द दिखाना है। समाजसेवी संस्थाएं जमीनी स्तर पर काम करतीं तो ऐसे सैकड़ों बच्चों की जिन्दगी अंधेरे में डूबने से बच सकती।
हालांकि सरकार भी बाल उद्धार के लिए तमाम योजनाएं चलाती है। शत-प्रतिशत बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान भी चल रहा है। इसके बावजूद बच्चे जीवन यापन में परिजनों के मददगार बने हुए है। ये मुमकिन नहीं है कि परिजनों की इच्छा के विपरीत बच्चा स्कूल न जाये। बच्चा कूड़े के ढेर में जीवन तलाशने को विवश हुआ या उसे भेजा गया। ये अलग बात है लेकिन परिजन भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। वहीं वह जिम्मेदाराना भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं मुकर सकते, जिन पर इन बच्चों को राष्ट्र की धारा में शामिल करने की जिम्मेदारी है।