बुधवार, 25 दिसंबर 2024

लेख :वृत्तं यत्नेन संरक्षेत् वित्तमायाति याति च।||Article : Vrittam Yatnen Sanrakshet Vitnatamayati Yaati Ch.||

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लेख  :
वृत्तं यत्नेन संरक्षेत् वित्तमायाति याति च।
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डी एस चौबे "शास्त्री"
( एम ए,संस्कृत,समाज शास्त्र,जर्नलिज्म डिप्लोमा)
दो टूक : संस्कृत उक्त में चरित्र की महत्वा को समझाया गया है, जैसे जैसे लोगों मे अपनी संस्कृति का लोप हो रहा है वैसे वैसे शिक्षित होने के बावजूद भी संस्कारहीनता बढ़ती जा रही है।
वृत्त यानि चरित्र तथा वित्त अर्थात् धन। तात्पर्य है कि मनुष्य को अपने चरित्र की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए,सप्रयास करनी चाहिए। धन तो आता जाता रहता है परन्तु यदि व्यक्ति का चरित्र कलंकित हुआ तो पुनः निष्कलंक होना असम्भव है, यह प्राचानी सभ्यता का समाजिक नियम था।
विस्तार:
प्राचीन भारतीय वाङ्मय से लेकर अर्वाचीन सभी साहित्यों में बलपूर्वक कहा गया है कि-वृत्तम यत्नेन संरक्षेत अर्थात चरित्र की रक्षा यत्नपूर्वक की जानी चाहिए,क्योंकि अक्षीणो वित्तत: क्षीणो, वृत्तस्य क्षीणो हतो हत:।इतना ही नहीं कि भारतीय वांग्मय में ही चरित्र की महत्ता का उल्लेख है,अपितु आंग्ल संस्कृति में भी उन्मुक्तता के बीच पाशविकता न पनपे,अतएव कैरेक्टर इज लॉस्ट देन एवरीथिंग लॉस्ट कहते हुए उत्तम नैतिक चरित्र की उपादेयता और महिमा का वर्णन किया गया है।यही नहीं महान शिक्षाशास्त्री पेस्टलोजी ने भी उत्तम नैतिक विचारों की अभिवृद्धि को ही शिक्षा कहकर पुकारा है।महान दार्शनिक और शिक्षाविशारद स्वामी विवेकानंद जी ने भी मनुष्य की अंतर्निहित शक्तियों के सर्वोत्तम प्रस्फुटन को शिक्षा कहकर संबोधित किया है।महात्मा गांधी,लॉक,प्लेटो,रूसो,अरविंदो सहित सभी प्रमुख नवाचारवादी प्राच्य और प्राचीन शिक्षाशास्त्रीगण ने भी स्वयम अपने अपने मन्तव्य व्यक्त करते हुए जहां शिक्षा के मूल उद्देश्यों पर प्रकाश डाला है वहीं विद्यार्थियों में उत्तम नैतिक चारित्रिक विकास को मुक्तकंठ से महत्त्वपूर्ण मानते हुए इसकी अपरिहार्यता को स्वीकार की है।किंतु वहीं यह यक्ष प्रश्न भी विचारणीय है कि विद्या विहीना पशुभि:समाना जैसे नीतिवचन प्रतिपादित करने वाली संस्कृति के बावजूद आजकल उच्च शिक्षितों में ही नैतिकता का अभाव व संस्कारों के अभाव अनपढ़ों के वनिस्पत अधिक दिखाई दे रहे हैं।आखिर ऐसा क्यों है?इसके उत्तरदायी कारक कौन कौन हैं?क्या शिक्षा नीतियों का निर्माण चरित्र निर्माण करने की दिशा में असफल रहा है?फिलहाल कारण चाहे जो भी हों किंतु नैतिकताविहीन समाज की बदतर स्थिति की सम्यक विवेचना और उसके उत्तरदायी कारणों का सम्यक विवेचन समीचीन प्रतीत होता है।
 वस्तुत: समाज में उत्तरोत्तर बढ़ती चारित्रिकपतन की स्थिति ही हमारी सभी प्रकार की समस्याओं की मूल जड़ है।किंतु कदाचित इसके निराकरण हेतु कोई ठोस प्रयास किसी भी दिशा से होता हुआ नजर नहीं आता।जिससे ये यक्ष प्रश्न उठना लाजिमी है कि आखिर आज के दौर में जब हम वैज्ञानिकतापूर्ण अन्वेषी शिक्षण प्रदान करने का दम्भ भरते हैं,महंगे से महंगे संस्थानों में पैसे के बलपर प्रवेश ले सकते हैं,गांव गांव बसें भेजकर चूल्हे के अंदर से बच्चों को इकट्ठा कर विद्यालय में दाखिला करवा सकते हैं या मंगवा सकते हैं,नेट और सोशल मीडिया पर कुछ भी कह सकते हैं तो फिर थोड़ा सा नैतिक क्यों नहीं हो सकते?आखिर ये शिक्षा बच्चों को कहां और कैसे मिलेगी?कौन व्यवस्था करेगा अन्यथा व्यवस्था न होने पर भुगतेगा कौन और जिम्मेदार कौन होगा?विचारणीय है।
  वस्तुतः आज चाहे नेताओं/मंत्रियों की बेवफाई हो,अधिकारियों की मक्कारी और अवैध उगाही हो,कर्मचारियों की कर्तव्यहीनता और घूसखोरी हो,शिक्षकों की लुप्तहोती दायित्वहीनता हो या समाज में बढ़ती मुफ्तखोरी तथा जालसाजी हो या फिर बलात्कार,आतंकवाद,जातिवाद हो या पढेलिखों और अधिकारियों/व्यापारियों द्वारा अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजने की स्थिति हो,कदाचित सभी समस्याएं नैतिकता के पतन की ही परिणति हैं।जो ये सिद्ध करती हैं कि अनपढ़ और गंवार व्यक्ति तो सौ फीसदी देशभक्त,मातृभक्त और सच्चरित्र हो सकता है किंतु सभी उच्चशिक्षित संस्कारित नहीं हो सकते।आखिर ऐसा क्यों है?
  सत्य तो ये है कि आज शैक्षिक संस्थान ज्ञान देने की बजाय सूचनाओं का सम्प्रेषण करते हुए व्यवसाय करते हैं।संस्थान अंकीय उपलब्धि का ढिंढोरा पीटकर कमाई करते हैं।राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के प्रावधानों से इतर अबतक लागू की गयी नवाचारी प्रविधियों में प्रयोग तो आएदिन हो रहे हैं किंतु सार्थक परिणाम नहीं आ रहे हैं।सत्य तो यह है कि आओ करके सीखें और प्रयोगात्मक तथा प्रयोगात्मक विधियों से सीखने की गुणात्मकता युक्त प्रविधियां अब पुस्तकों के पन्नों के विषय बन चुकी हैं।आज कक्षा 10 से लेकर स्नातक,परास्नातक तक ही नहीं अपितु चिकित्सा क्षेत्र में नर्सिंग,फार्मेसी व लैब टेक्नोलॉजी आदि क्षेत्रों में भी रट्टू तोतों को तैयार किया जा रहा है,व्यावहारिक ज्ञान शून्य हैं।आज स्कूल,कॉलेज तो हैं किंतु प्रयोगशालाएं नहीं हैं।यदि कहीं कहीं प्रयोगशालाएं हैं तो उचित आवश्यक उपकरण नहीं हैं,और तो और यदि सबकुछ उपलब्ध हों तो भी प्रयोग करवाने वाले अनुभवी शिक्षकों का टोंटा है।स्थिति बद से बदतर है और सभी जिम्मेदार कान में तेल डालकर चुप हैं।अभिभावक भी अपने बच्चों को नामचीन विद्यालयों में प्रवेश करवाकर जश्न मनाते हैं तथा किसी भी प्रकार से आये अच्छे अंक को  नौकरियों में सहायक मानते हैं। वे भूल जाते हैं कि संस्कारों का अधोपतन न केवल उनके लिए अपितु राष्ट्र व संस्कृति के लिए कितना घातक है।आज विद्यालयों में नैतिक शिक्षा एक विषय होकर भी शिक्षण का विषय नहीं है।अभिभावकों के लिए बच्चों के वास्ते समय नहीं है जिससे वे इंटरनेट आदि माध्यमों से मनचाहा लगाव रखते हैं।पाठ्यक्रम भी बोगस और बकवास है।अन्ततः कहा जा सकता है कि परिवार भी बच्चों में शुरुआती संस्कार देने में असफल रहे हैं।जिससे आज अराजकता की स्थिति उत्तपन्न हो गयी है।
   देखा जाय तो प्राणियों में सद्भावना,एक दूसरे से मैत्रीभाव,राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों का निर्धारण,परिवार व समाज में एक दूसरे के साथ संविलयन व समाजीकरण सहित उच्च नैतिक आदर्शों की स्थापना शिक्षा के सभी औपचारिक व अनौपचारिक अभिकरणों का मुख्य विषय रहा है।जिसके लिए संयुक्त परिवार,विद्यालयों में योग्य और आदर्शों शिक्षकों की उपस्थिति,नेताओं की वचनबद्धता,धार्मिक नेताओं यथा संतों,महंतो,पादरियों,मौलवियों, भंते जैसे लोगों के भी उत्तरदायित्व कम नहीं होते हैं।जिनके माध्यम से  विद्यार्थियों के अंदर बचपन से ही सांस्कृतिक,सामाजिक व नैतिक गुणों की स्थापना तथा उनके विकास हेतु उचित परिवेश का सृजन किया जाता है किंतु आजकल स्थितियां ठीक इसके विपरीत हैं।आजकल विद्यालय केवल सूचना प्रदान  करने के केंद्र बनकर रह गए हैं।अपनी आवश्यकताओं व सुविधाओं हेतु हर कदम घूस देकर कार्य करवाने वाले शिक्षक भी राष्ट्र व समाज के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक कम दिखते हैं,पाठ्यक्रम में संस्कारयुक्त अध्यायों का लोप सा है,धार्मिक नेतागण भी सियासत की रोटियां सेंकने में व्यस्त हैं, अधिकारियों में लूट खसोट की भावना इतनी प्रबल है कि आज सामान्य पुलिस का सिपाही भी राजधानियों में कई कई फ्लैटों के मालिक हैं,जबकि सामान्य किसान जस का तस सरकारी कृपादृष्टि का आकांक्षी है।
    कोविड के पश्चात ऑनलाइन शिक्षा का नवाचारी रूप भी समाज में व्यभिचारी प्रवृत्तियों का बढ़ावा देने वाला एक सशक्त माध्यम बन चुका है।आज सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया में ऐसे ऐसे आख्यान हैं जो विद्यार्थियों के मस्तिष्क को नकारात्मक दिशा में मोड रहे हैं।विद्यार्थियों में पढ़ाई से इतर रीलें बनाकर फेसबुक,इंस्टाग्राम आदि प्लेटफार्मों पर पोस्ट करने की लत बढ़ती ही जा रही है।समाज में चरित्रवान व राष्ट्रप्रेमी लोगों की आर्थिक दुर्दशा या दयनीय स्थिति देखकर आमजन भी उन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों व नेताओं की नकल करने लगे हैं,जिनके उद्देश्य केवल धनार्जन हैं।ऐसी स्थिति में चाहे आईएएस अधिकारियों की अकूत कमाइयों का उल्लेख हो या नेताओं की नाजायज संपत्ति का वर्णन।धन की चकाचौंध ने सभी संस्कारों को फीका कर दिया है।अब तो प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चों की अनैतिक कमाई के जोर से समाज में स्वयं को कुलीन साबित करने में लगा है।जिससे अपेक्षाकृत अधिक संस्कारित लोगों का उपहास बढ़ने लगा है औरकि पढ़ेलिखे लोगों में व्यभिचार की प्रवृत्तियों का दिनोदिन बढ़ता प्रभाव संस्कारों के क्षरण का मुख्य कारण बनता जा रहा है।