लखनऊ :
अस्ति में नास्ति और जीवन का सत्य
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।।उदयराज मिश्र(चिंतक एवं विचारक)।।
दो टूक : किसी कवि ने कहा है कि-
"कैसे कैसे,ऐसे वैसे हो गये।
ऐसे वैसे ,कैसे कैसे हो गये।।"
कदाचित संसार सागर का यही वास्तविक सत्य और नास्ति में अस्ति को तलाशते मानव जीवन का असल रूप है।जिसे जानते हुए भी कोई देख नहीं पाता और जो जान जाते हैं,वे बन्द आंखों से भी इसे सहज ही देख लेते हैं।तभी तो महात्मा कबीरदास जी ने जीवन की नश्वरता को निम्नवत व्यक्त किया है -
यह तन कांचा कुंभ है,लिए फिरे था साथ।
हल्का ढब्का लग गया,कछुक न आया हाथ।।
जबकि गोस्वामी जी ने जहां मानव शरीर को साधन धाम मोक्ष का द्वारा कहते हुए अभीष्टतम इष्टतम की प्राप्ति का मुख्य साधन नश्वर शरीर को ही माना है।किंतु यह मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वह करता क्या है।
वस्तुतः विद्वानों ने संसार की उपमा सागर से करते हुए सदैव इसके विशाल और अगाध स्वरूप को दत्तचित्त से स्वीकार्य किया है किंतु आमजन इसे सहज नहीं पाते।सामान्य बुद्धि से भ्रम के नेत्रों द्वारा देखी हुई बहुत सी वस्तुएं प्रायः वैसी नहीं होतीं जैसी परिलक्षित होती हैं,यही संसार और सागर की पारस्परिक समानता और अस्ति में नास्ति की नित्यता है।जैसे सागर के एक तट पर खड़े व्यक्ति को वह तट तो दिखाई पड़ता है किंतु दूसरा तट नहीं दिखता है।उसीप्रकार मनुष्य को भी जन्म रूपी तट तो दिखाई देता है किंतु मृत्यु रूपी दूसरा तट दृश्यमान नहीं होता।जबकि समुद्र और जीवन के दोनों तट न दिखाई देने पर भी होते हैं।
समुद्र और जीवन की पारस्परिक उपमा का दूसरा कारण सदैव रहने वाली अशांति है।भूगोल वेत्ताओं और भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार सागर कभी शांत नहीं रहता।उसकी लहरें कभी ज्वार बनकर आकाश को छूने दौड़ती हैं तो कभी भाटा बनकर गहराइयों में दफन होती रहती हैं।ठीक इसीप्रकार मानव जीवन में भी सुख और दुख आते जाते रहते हैं।उत्थान-पतन और अनुकूलता-प्रतिकूलता सागर और मानव जीवन की दो अलग-अलग परिस्थितियां हैं जो एक के गुजरने के बाद अनिवार्य रूप से उपस्थित होती रहती हैं।यथार्थ में मानव मन कभी अनुकलता की स्थिति में जहाँ हर्ष के चरम की अनुभूति करता है तो विषाद में अगाध शोक की धाराओं में पाताल तक डूब जाता है।मनुष्य जिन सुखों और सुविधाओं को जीवन के लिए आवश्यक समझकर दिनरात स्वयम को भुलाकर नानाप्रकार के कर्म-कुकर्म करता जाता है।अंत में वही उसके दुख के कारण बनते हैं।वस्तुतः धन को सुख का मूल मानना ही स्वयम में दुख का कारक है।यही अस्ति में नास्ति की संकल्पना और जीवन का सार तत्व है।
दर्शनशास्त्री प्रायः प्रश्न करते हैं कि-दीपक क्यों जलता है?उत्तर में कोई प्रकाश के लिए तो कोई अन्य जबाब देते हैं।जबकि वास्तविक रूप से दीपक तो बुझने के लिए जलता है।इसीप्रकार जीवन की शुरुआत भी जन्म से शुरू होकर मृत्यु पर समाप्त होती है।इसीप्रकार समुद्र और जीवन में एक अन्य समानता स्वादगत है।समुद्र का जल देखने में बड़ा स्वच्छ भले दिखता है किंतु स्वाद बिल्कुल उसके विपरीत औरकि खारा होता है।ठीक इसीप्रकार मानव जीवन भी देखने में जितना मजेदार दिखता है,उतना होता नहीं है।जीवन की अनुभूतियां ही स्वयम इसकी प्रमाण होती हैं।यही कारण है कि संसार को विद्वान संसार सागर कहकर पुकारते हैं।
जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है?इसका उत्तर भी है-मृत्यु।किन्तु सत्य और वास्तविकता को जानने के बावजूद मानव इसे पहचानने से भागता है।परम तत्व की प्राप्ति हो याकि राजसत्ता का वरण या फिर पूरे संसार पर शासन करने उत्कंठा,जो भी हो,ये सबकी सब जीवन रूपी सफर के पठार ही हैं,ठहराव हैं किंतु मंजिल नहीं।मंजिल अंतिम पड़ाव और जीवात्मा का परमात्मा में विलय का स्थल है न कि कुछ और।इसप्रकार संसार में मैं ही सबकुछ हूँ-ऐसा मानने वाले ही कुछ भी नहीं जानते।सांसारिक वस्तुएं जो इन्द्रियजन्य अनुभूति की विषय होती हैं,जिन्हें मन और वासना अस्ति मानती है।वस्तुतः वे सबकी सब अनित्य और नास्ति ही हैं।सत्य तो यह है कि जो यथार्थ और वास्तविक सत्य है,वही अस्ति है किंतु मनुष्य इसे ही नास्ति मानते हुए उस मार्ग का अनुसरण करता है जो उसे स्वयम से दूर और सत्य से परे ले जाता है।
व्याकरणशास्त्र के अनुसार अस्ति और नास्ति भले ही विरोधाभास अलंकार हों किन्तु ये सागर के उन दोनों तटों की ही तरह हैं,जिनमें दूसरा तट होते हुए भी दृश्यमान न होने के कारण मनुष्य के लिए नास्ति बन जाता है।कदाचित जीवन में सच्चाइयों को स्वीकार न करना भी अस्ति और नास्ति का ही उदाहरण होता है।विज्ञान के अनुसार सूर्य के प्रकाश में सात रंग की किरणें होती हैं।जिनमें सफेद प्रकाश नहीं होता।किन्तु व्यवहार में जगत में हमें प्रकाश सफेद रंग का ही दिखाई देता है।इसीप्रकार धरती से देखने पर आकाश नीला दिखाई देता है,जबकि विज्ञान कहता है कि आकाश काले रंग का है।फिर प्रश्न उठता है आखिर हम जो देखते हैं,वह सत्य है या कि जो नहीं दिखाई देता वह सत्य है।यही भ्रम है।इसी का निवारण होना ही अस्ति से परिचय कराता है किंतु जीवन तो भ्रम के आवरण में दम्भ और लोभ के वसनों में लिपटा वासना की नजरों से भौतिकता को नित्य व सत्य मानता है,जोकि नास्ति हैं,अनित्य हैं,नश्वर हैं।
स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार नित्य-अनित्य और अस्ति में नास्ति का यथार्थ परिचय स्वयम को पहचान कर की जा सकती है।स्वामी जी आत्मा को दिव्य मानते थे।यही कारण है कि वे मनुष्य को भी प्रतिकूल परिस्थितियों में असाधारण साहस और धैर्य रखते हुए अपने अनुकूल वातावरण के सृजन पर जोर देते थे अर्थात स्वामी जी नास्ति को ही अस्ति और अस्तित्व के समान महत्त्वपूर्ण तथा यथार्थ सत्य स्वीकार्य करते थे।जिसके बगैर जीवन की संकल्पना सफलीभूत नहीं हो सकती।