लखनऊ :
सामाजिक न्याय और बुद्ध का मध्यम मार्ग।।
।।डॉ.उदयराज मिश्र।।
।।चिंतक एवं विचारक।।
धर्म चक्र परिवर्तन के प्रतिपादक तथागत गौतम बुद्ध और उनके उपदेश न तो किसी परिचय के मोहताज हैं और न किसी खंडन मंडन के।अपितु बुद्ध के बताये मध्यम मार्ग का अनुसरण ही मानव के सुख का मूल औरकि सामाजिक न्याय के आदि सिद्धांतों का जनक है।जहाँ प्राणिमात्र के कष्ट निवारण हेतु समता,ममता,मानवता,बंधुत्व और उदारता के सन्देश जगह-जगह माले के मानकों जैसे पिरोए हुए लगते हैं।कदाचित प्रभु श्रीराम के रामराज्य,कृष्ण के मित्रधर्म और भगवान महावीर के अहिंसा परमो धर्म: का समन्वित स्वरूप महात्मा बुद्ध का समतामूलक सन्देश ही माने जाने योग्य तथा सर्वथा उचित हैं किंतु निहित स्वार्थों के वशीभूत जनमानस में तथागत के उपदेशों को नवबौद्धिष्टों द्वारा जिसतरह प्रचारित किया जा रहा है,उससे यदि किसी को सर्वाधिक चोटिल होना पड़ रहा है तो वह केवल और केवल गौतम बुद्ध का मध्यम मार्ग ही है।अस्तु समय रहते इन नवबौद्धिष्टों के कुचक्र को निष्फल करते हुए एकबार फिर से धर्म चक्र परिवर्तन की मूल भावनाओं को अंगीकृत करना ही श्रेयस्कर होगा,इसमें कोई शक नहीं।
जैसा कि यह सर्वविदित है कि इक्ष्वाकु वंशीय सूर्यवंशी क्षत्रिय राजकुल में जन्म लेने वाले महाराज शुद्दोधन तथा राजमाता महामाया के पुत्र का बचपन का नाम सिद्धार्थ था।यह नामकरण शाक्य वंशीय राजा शुद्दोधन के कुलगुरु महर्षि असित द्वारा किया गया था।जिन्होंने जन्म लेते ही घोषणा की थी कि यह बालक आगे चलकर महान संत और युगपरिवर्तक बनेगा।महर्षि असित ने महाराज शुद्दोधन से राजसभा में यह भी कहा था कि यह बालक अखिल ब्रह्मांड पर प्रेम रूपी शक्ति से युगों युगों तक शासन करेगा।गौतम गोत्रीय क्षत्रिय होने के कारण सिद्धार्थ को गौतम तथा ज्ञान प्राप्ति के उपरांत गौतम बुद्ध के नाम से जाना जाता है।कालांतर में राजकुमार सिद्धार्थ ने महर्षि असित की भविष्यवाणी को सच साबित करते हुए 29 वर्ष की अवस्था में ही अपनी धर्मपत्नी यधोधरा और पुत्र राहुल को रात्रि में सोता छोड़कर ज्ञानप्राप्ति हेतु सन्यास धारण कर लिए थे।कदाचित किसी जीवात्मा के माया के फेर से निकल कर परमब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करते हुए दासत्व भाव से की जाने वाली साधना की थी स्थिति महात्माओं के प्रथम लक्षण व सिद्धिप्राप्त करने का प्रथम सोपान है।
राजकुमार ने बाल्यकाल की शिक्षा महर्षि विश्वामित्र से प्राप्त की थी जबकि सन्यास की दीक्षा महर्षि आमार कालाम ने उन्हें दी थी।उन्होंने प्राचीन भारतीय वाङ्मय की अमूल्य निधि महर्षि कपिल प्रणीत सांख्य दर्शन और पतंजलि प्रणीत योग दर्शन की शिक्षाएं भी अपने संन्यास ग्रहण करने के उपरांत लेते हुए योग को साधना का प्रकृष्ट माध्यम चुना।यही कारण है कि तथागत की अधिकांश प्रतिमाएं योग मुद्रा में ही मिलती व दिखती हैं।हालांकि ये शिक्षाएं उन्होंने महर्षि कपिल या पतंजलि से नहीं ली थी किंतु इनके प्रणेता कोई और नहीं थे।जिससे स्पष्ट है कि बुद्ध इन महर्षियों को महनीय स्वीकार करते थे।
गौतम बुद्ध तपस्चर्या के प्रारंभिक दिनों में कठोर साधना करते हुए अन्न का पूर्णरूपेण त्याग कर चुके थे।जिससे उनका शरीर काफी कृशकाय हो चुका था।किंतु एकदिन कुछ स्त्रियों के गान को सुनकर उन्हें आत्मज्ञान हुआ कि अति सर्वत्र वर्जयेत अर्थात किसी कार्य की अति कभी भी हितकारी नहीं होती है।अतः उन्होंने अन्न को जीवनाधार मानते हुए फिरसे ग्रहण करते हुए मध्यमार्ग का अनुसरण किया और बाद में जनसामान्य को भी मध्यमार्ग पर चलने की शिक्षा दी।
मध्य मार्ग के अनुसार मानव को किसी भी प्रकार अहम,लिप्सा, मोह इत्यादि को त्यागकर प्राणिमात्र को अपना ही परिजन मानते हुए अपनों के साथ अपने जैसा व्यवहार करने की समतामूलक व्यवस्था है।बुद्ध ने स्वयम कपिलवस्तु प्रत्यावर्तन करने पर राजसभा में शाक्यमुनि के रूप में सभा को सम्बोधित करते हुए जो उपदेश दिया था,वही सामाजिक न्याय का प्रथम सिद्धांत कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा।अपने सम्बोधन में बुद्ध ने बताया था कि शासक वर्ग जब स्वयम को प्रजा से इतर मानने लगता है तो समाज में शोषक और शोषित दो वर्ग पनपने लगते हैं।जिससे धर्म,जाति, वर्ण,धनी,गरीब व छुवाछुत के आधार पर भिन्न भिन्न प्रकार के व्यवहार होने से मानव स्वयम मानव से कटने लगता है और समाज छिन्न भिन्न होने लगता है।उन्होंने राजा और शासक वर्ग को पिता तथा प्रजा को पुत्र और संतान मानते हुए पिता-पुत्र सम्बन्धों की ही तरह राजा-प्रजा सम्बन्धों की भी विशद व्याख्या की।बुद्ध में यह भी कहा कि राजा और शासक को चाहिए कि वे समाज के हर वर्ग को जीने लायक सुख का आधार अवश्य बानैं।कदाचित बुद्ध का यह उपदेश किसी सामाजिक न्याय के सिद्धांत से कमतर कदापि नहीं है।
द्रष्टव्य है कि सनातन हिन्दू धर्म बुद्ध को भगवान नारायण का अवतार मानता है जबकि नव बौद्धवादी खंडन-मंडन में यकीन करते हैं।कदाचित बुद्ध के उपदेश कहीं पर भी मानवता के लिए विभेदनकारी नहीं हैं जबकि आजकल नव बौद्ध हिन्दू देवी देवताओं का अपमान करते हुए स्वयम को महान बौद्ध भिक्षु बताते नहीं थकते हैं।सत्य तो यह है कि बौद्ध पंथ को उतनी क्षति किसी अन्य पंथ या धर्म ने नहीं पहुंचाई है,जितनी छद्म पाखंडी नवबौद्धिष्टों द्वारा पहुंच रही है।जैसे नकली सिक्के असली सिक्के को चलन से दूर कर देते हैं,वैसे ही ये नकली बौद्धिष्ट भी सर्वाधिक नुकसान तथागत की विचारधारा को ही पहुंचा रहे हैं।
ध्यातव्य है कि तथागत बुद्ध ने हिन्दू धर्म के अग्निहोत्र,अष्टांग योग, गायत्री मंत्र इत्यादि का सम्यक अनुपालन और प्रचार प्रसार भी किया।उन्होंने साधना और ब्रह्मचर्य तथा भिक्षाटन जैसे सन्यासियों के गुणों को सदैव महर्षियों की ही तरह अंगीकृत किया।बोध गया में ज्ञानप्राप्ति व काशी के मृगदाय वन में अपना प्रथम उपदेश देने वाले महाप्राण तथागत बुद्ध ने 80 वर्ष की अवस्था में कुशीनारा(कसया,कुशीनगर) में परिनिर्वाण लिया था।जहाँ उनकी इहलीला उनके ही एक शिष्य द्वारा भोजन में शकमॉड्यो जैसा विषाक्त भोजन कराने के तीन दिन पश्चात हुई थी किन्तु उनके उपदेश व शिक्षाएं आज भी जीवंत हैं।
बुद्ध का मध्यममार्ग सदैव तटस्थ रहते हुए चित्त वृत्तियों के निरोध के साथ दुखों को दूर करने का संदेश देता है।इसके अनुसार हिंसा,मद्यपान,छल,कपट,बेईमानी,आवश्यकता से अधिक संग्रह और दूसरों के हिस्से पर अतिक्रमण इत्यादि दुख के कारक हैं।इनका त्याग ही सुख का मूल और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाला सत्कर्म होता है।मध्यमार्ग किसी भी स्थिति में अति और अतिरेक की नहीं अपितु सबको साथ लेकर संघम शरणम गच्छामि के साथ ही साथ मानवतावादी धम्मम शरणम गच्छामि की शिक्षा देता है।दुर्भाग्य से नेताओं द्वारा नमो बुद्धाय उद्घोष की आड़ में जातीय व सामाजिक विद्वेष की जो लहर फैलाई जा रही है वह कभी ब्राह्मणों और बनियों को तो कभी सभी सवर्णों को भारत से भगाने की कुत्सित चेष्टाएँ भी करती दिख रही है।जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,दिल्ली की दीवारों पर जो कुछ भी लिखा गया,उसके पीछे भी यही कम्युनिष्ट व नवबौद्धिष्ट लोग ही हैं।कहना गलत नहीं होगा कि ये लोग बुद्ध को अगर जानते तो कदाचित ऐसा कुकृत्य करने की बजाय मध्यमार्गी बनकर जीवन को धन्य बनाने में जुट जाते।
- डॉ.उदयराज मिश्र
चिंतक एवं विचारक
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