बुधवार, 26 मार्च 2025

लेख :-- ।। शरीर के अंगों में द्वैताद्वैत।।Article :--        ।। Dualism in body parts।।

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लेख :--
        ।। शरीर के अंगों में द्वैताद्वैत।।
।।विद्यावाचस्पति उदयराज मिश्र।।
दो टूक : भारतीय वांग्मय में अक्षर को ब्रह्म कहा गया है।अक्षर अर्थात जिसका क्षर यानि कि क्षय या विनाश न हो अर्थात जो शाश्वत हो,चिरस्थाई हो।कदाचित प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अक्षर की इसी शाश्वतता को ध्यान में रखते हुए अक्षरों के अर्थयुक्त मेल से बनने वाले विकार को शब्द संज्ञा दी है।जिनसे सोद्देश्यपूर्ण कथन किए जाते हैं।शब्दों की यह सारगर्भिता न केवल भाषा व व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से उपयोगी और महत्वपूर्ण है अपितु दार्शनिक और शरीर क्रिया विज्ञान की दृष्टि से भी अत्यंत महनीय है,स्तुत्य है।
    भारतीय उपनिषदों,पुराणों,शास्त्रों और प्राचीन से लेकर अर्वाचीन सभी प्रकार के साहित्यकारों,दार्शनिकों व भाषाविज्ञानियों में इस बात पर एक राय है कि मानव शरीर के अंगों के नामकरण में भी प्राचीन मनुष्यों में द्वैताद्वैत की संकल्पना को एकीकृत करते हुए एकोsहम द्वितीयो नास्ति का ही प्रतिपादन करते हुए परमब्रह्म की परमसत्ता का सांगोपांग वर्णन किया है।
     ध्यातव्य है कि मनीषियों ने और कि स्वयं आचार्य चरक तथा सुश्रुत ने भी चिकित्साशास्त्र की सर्वप्रथम व्याख्या करते हुए शरीर के अंगों के नामों में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ न करते हुए आदि ऋषियों की परम्पराओं का ही अनुपालन करते हुए
शरीर के अंगों को जस का तस नाम दिया है।जैसे - सिर,कान,मुंह,हाथ,नाक,आंख,पैर, चोटी,टांग,मन,सांस आदि।जिन अंगों के नामों को पढ़कर हमें लगता है कि वे दो से अधिक अक्षरों से बने हैं तो वास्तव में हम उनके पर्याय शब्दों को व्यवहार में प्रयोग करते हैं।हिंदी भाषा एक समावेशी भाषा है,जिसमें अन्य देशों,प्रांतों की बोलियों को समाहित करके आजकल व्यवहृत किया जाता है।जिससे यह भ्रम हो जाता है कि अमुक शब्द वास्तव में हिंदी भाषा का ही शब्द है या किसी अन्य भाषा से लिया गया है।
  वस्तुत: हमारे अंगों के नामों में भी द्वैत होते हुए सभी अंगों को मिलकर एक शरीर का रूप मिलने पर अद्वैत की संकल्पना प्राचीन मनुष्यों ने की है।जिसतरह सभी नदियां समूचे विश्व में बहती हुई महासागर में विलीन होकर पानी सागर का रूप ग्रहण कर लेता है,उसी तरह सभी अंगों को मिलाकर एक शरीर का निर्माण होता है।यही ब्रह्म जीवैव नाsपर: को चरितार्थ करता है।
  संन्यास उपनिषद में हाथ जोड़कर नमस्कार करने का वर्णन करते हुए कहा गया है कि दोनों हाथ द्वैत अर्थात प्रणाम करने वाले और जिसे प्रणाम किया जाता है,दोनों के प्रतीक होते हैं।किंतु जब कोई व्यक्ति दोनों हाथों को जोड़कर नमस्कार करता है तो तुभ्यम मह्यम नमामि च अर्थात मैं जिसको प्रणाम करता हूँ, वही आत्मतत्व तो मेरे अंदर भी है।इस प्रकार जब दोनों हाथ जुड़ते हैं तो दुई का भाव समाप्त होकर दुई की जगह एक का भाव हो जाता है।इस प्रकार हाथ जोड़कर प्रणाम करने पर किसी व्यक्ति विशेष को नहीं अपितु परमेश्वर को प्रणाम किया जाता है।कदाचित यही स्थिति अंगों के मिलने पर संपूर्ण शरीर बनने पर द्वैत से अद्वैत की यात्रा पूर्ण होती है।यही स्थिति ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या को परिभाषित करती हुई अद्वैत की प्रधानता को प्रतिपादित करती है।